दैदीप्यमान नक्षत्र: आचार्य श्री विद्यानंद
विश्व के प्राचीन धर्मों में आर्हत धर्म जिसे श्रमण संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है विशिष्ट व गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।यह संस्कृति अहिंसक व अध्यात्म प्रधान रही है।यहां भोग नहीं योग,संग्रह नहीं त्याग और राग नहीं अपितु वीतरागता की उपासना है।तीर्थंकर ऋषभदेव से भगवान महावीर तक 24 तीर्थंकर और उनके पश्चात आचार्य भगवंतों ने अपनी साधना से इस संस्कृति को पल्लवित व पुष्पित करने में महती योगदान दिया है।यह संस्कृति व्यक्ति पूजा में विश्वास नहीं करती अपितु पंच परमेष्ठी की आराधना को प्रमुखता देती है।अर्हंत,सिद्ध,आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी कहलाते हैं।सभी जैनों के यही आराध्य हैं जो देव,शास्त्र,गुरु की श्रेणी में आते हैं। देव और गुरुओं द्वारा प्रतिपादित लिपिबद्ध उपदेश शास्त्र कहलाते हैं।कुल मिलाकर इस संस्कृति की रीढ या आत्मा इन देव,शास्त्र और गुरुओं में निवास करती है।सभी तीर्थंकर देवों की श्रेणी में आते हैं अतः पूज्य हैं।24 वें तीर्थंकर भ.महावीर के निर्वाण के पश्चात् आचार्य परम्परा अविरल रूप से प्रवाहमान है।आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों साधुओं की श्रेणी में आते हैं,अतः पूज्य हैं जो गुरु कहलाते हैं।आ.धरसेन,कुंदकुंद, अमृतचंद्र,जिनसेन,वीरसेन,उमास्वामी, अकलंकदेव,समंतभद्र, गुणभद्र,योगीन्दु देव,अमितगति जैसे अनेक समर्थ आचार्य हुए हैं जिन्होंने वीतरागी निर्ग्रंथ परम्परा को सफल नेतृत्व प्रदान कर धर्मध्वजा फहरायी है।वर्तमान समय में आ.शांतिसागर दक्षिण व आ.शांतिसागर छाणी परम्परा में अनेक दिगम्बर संत इस शस्यश्यामला भारत भूमि पर निर्ग्रंथ विचरण कर अपने धर्म उपदेश से जनमानस का मोक्षमार्ग प्रशस्त कर रहे हैं,ऐसे ही विरले संतों में आचार्य श्री विद्यानंद जी का नाम उल्लेखनीय है।

22 अप्रैल 1925 को कर्नाटक के छोटे से गांव शेडवाल में कलप्पा उपाध्ये के घर सरस्वती देवी की कोख से सुरेन्द्र नामक प्रतिभाशाली पुत्ररत्न का जन्म हुआ।माता-पिता ने बचपन में ही बालक सुरेन्द्र को सुसंस्कारित कर जैनधर्म व दर्शन की शिक्षा में पारंगत किया।गांव की वेद गंगा और दूध गंगा नदियों में बाल सखा सातगौंडा पाटिल के साथ आप विभिन्न मुद्राओं में घंटों तैरा करते थे मानो भव समुद्र से पार होने की कला सीख रहे हों। शांतिसागर आश्रम शेडवाल में आपने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की।मराठी और कन्नड़ भाषा पर आपका अच्छा अधिकार था।दीक्षा पूर्ण होने पर गांधी जी के अहिंसक आन्दोलन से प्रभावित हुए और स्वाधीनता आंदोलन में बढ चढकर हिस्सा लेने लगे। एक बार आपने गांव की चौपाल के सामने पेड पर रातों रात तिरंगा  फहरा दिया और भारत माता की जयकारों के से गांव को गुंजायमान कर दिया। ऐसे दुस्साहसी बालक की खोजबीन होने लगी।परिणाम स्वरूप आप अज्ञात वास में चले गये।उसी काल में ऐनापुर आ गये जो आ.श्री कुंथुसागर जी की जन्मस्थली थी।वहाँ आ.श्री महावीर कीर्ति जी ने कुछ धर्मग्रंथ स्वाध्याय हेतु आपको दिये।ग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन करने से आपको वह ज्ञान मिल गया जिसकी आपको खोज थी।कुछ काल बीता कि आपको मोतीझरा रोग ने आ घेरा।कंचन सी काया मुरझा गयी।तभी आपने प्रण कर लिया कि स्वस्थ्य होते ही गांधी जी की वेशभूषा में रहूंगा तथा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा। प्रकृति को कुछ और ही स्वीकार था,शनैः-शनैः आप स्वस्थ्य होने लगे।व्रत के प्रभाव ने कायाकल्प कर दिया और पुनः ज्ञान की खोज में सतत् साधना करने लगे। 

अप्रैल 1946 में आ.महावीर कीर्ति जी विहार करते हुए कर्नाटक के तमदड्डी ग्राम पधारे। शेडवाल के चातुर्मास काल में आप आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी के निरंतर सम्पर्क में रहे तथा उनसे ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने से और अधिक निकटता प्राप्त की। 15 अप्रैल 1946 का ऐतिहासिक दिन आया जब आपने गृहत्याग कर आ.श्री महावीर कीर्ति जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहणकर पार्श्व कीर्ति वर्णी नाम पाया।क्षुल्लक बनने के बाद से ही आपके मन में परम सत्य प्राप्त करने का स्वप्न छाया रहा।आप 7 वर्ष तक शेडवाल स्थित आचार्य शांतिसागर आश्रम के अधिष्ठाता रहे जिस कारण संस्था का तीव्र गति से विकास हुआ।हुमचा पद्मावती के विकास में भी सहभागी बने।क्षुल्लक अवस्था में आपके 17 चातुर्मास हुए।धर्मस्थल में श्री नेमिसागर वर्णी से कन्नड़ ग्रंथों का अध्ययन किया।वर्णी जी की यह सीख-"दो रोटी हजम करते हो तो लोगों की दो बातें हजम करना " जीवन भर काम आई।राजस्थान के सुजानगढ़ में हुये चातुर्मास काल में आपने संस्कृत के माध्यम से हिन्दी सीखी।बस फिर क्या था हिन्दी में आपके प्रवचनों की धूम मचने लगी।नागौर आदि अनेक स्थानों पर आपने शिलालेखों एवं पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया।

अनेक स्थानों पर अपनी बुलंदी के झंडे गाडते हुए आप देश की राजधानी दिल्ली पहुंचे और वहां अशोक के शिलालेख का अध्ययन किया,नेशनल म्यूजियम भी गये। उन दिनों दिल्ली में आ.श्री देशभूषण जी विराजमान थे आप उनके दर्शनार्थ व अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने उनके समक्ष पहुंचे।आपकी ज्ञान और आगमोक्त चर्या ने आ.देशभूषण जी को प्रभावित कर दिया।एक दिन आचार्य श्री ने कहा-तुम विद्वान हो 17 वर्षों से क्षुल्लक हो मुनि दीक्षा धारण क्यों नहीं कर लेते?आखिर 25 जुलाई 1963 को दिल्ली के परेडग्राउंड में हजारों श्रद्धालुओं के समक्ष गगनभेदी नारों के मध्य आपकी मुनिदीक्षा सम्पन्न हुई और आपने विद्यानंद मुनि नाम पाया। मुनि अवस्था में 1964 का प्रथम चातुर्मास गुलाबी नगरी जयपुर में अपने गुरु आ.श्री देशभूषण के साथ हुआ।राजस्थान जैन सभा के तत्वावधान में प्रवचनों की खासी धूम मची रही।एक दिन विशाल पाण्डाल में राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.सम्पूर्णानन्द एवं जैन समाज के ख्याति प्राप्त विद्वान  पण्डित चैनसुखदास जी मंचासीन थे।मुनि श्री के प्रवचन का विषय था हम दुखी क्यों? आपने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा-जिस सभा में एक ओर सम्पूर्ण आनंद वाले सम्पूर्णानन्द जी और दूसरी ओर चैन और सुख से परिपूर्ण  चैनसुखदास बैठे हों और वे स्वयं विद्यानंद युक्त हों तो फिर हम दुःखी क्यों? 

आ.श्री देशभूषण जी ने 17 नवम्बर 1974 को दिल्ली में आपको उपाध्याय तथा 17 नवम्बर 1978 को ऐलाचार्य दीक्षा प्रदान की। 6 नवम्बर 1979 को चतुःसंघ इन्दौर द्वारा  आपकी प्रखर प्रज्ञा से प्रभावित होकर आपको सिद्धांत चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की गयी। 28 जून 1987 को आ.देशभूषण जी के आदेशानुसार दिल्ली में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। इस प्रकार आपकी बालक सुरेन्द्र से सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद बनने की प्रक्रिया पूर्ण हुई।

आ.श्री विद्यानंद जी समस्त जैन समाज के सिरमौर राष्ट्रीय संत के रूप में विख्यात हैं।देश के प्रबुद्धवर्ग तथा अन्य समाज की भी आपके प्रति गहन आस्था है। साम्प्रदायिक संकीर्णता के घेरे से कोसों दूर रहने वाले आचार्य श्री के समक्ष संकट की घडी में सलाह लेने राष्ट्रीय व सामाजिक नेता अक्सर आते देखे गये हैं। आचार्य श्री भी मानव कल्याण हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहे।समाज के सभी वर्गों को साथ रखने में आपको महारत हासिल है,यही कारण है कि वे आज सभी के पूज्य हैं तथा विरोधी भी आपका लोहा मानते हैं।

भ.महावीर के 25 सौ वें निर्वाण महोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर पहली वार विशाल पैमाने पर मनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।अपनी सूझबूझ से आचार्य श्री ने इस कडी को टूटने नहीं दिया और निरंतर कोई न कोई ऐसा कार्यक्रम समाज को दिया जिससे राष्ट्रीय स्तर पर समाज अपनी धाक बनाए रखने में सफल रहा। ऐसे कार्यक्रम समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल रहे। भ.बाहुबली का महामस्तकाभिषेक, गोम्मटगिरि,बाबनगजा तथा महावीर जी का सहस्त्राब्दी समारोह आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।भ.महावीर की जन्मभूमि वैशाली में विशाल भव्य मंदिर का निर्माण भी आपकी प्रेरणा का ही प्रतिफल है।22 सितंबर 2019 को इस महान राष्ट्र संत की समाधि हो गयी। सदा के लिए 

विद्या में जिसे आनंद की अनुभूति होती थी ऐसे नाम को सार्थक करने वाले मुनिराज विद्यानंद जी  चलते फिरते कोष थे,ज्ञान के भण्डार थे।ज्ञान की प्रामाणिकता आपका सबसे बडा गुण था।आचार्य श्री अनुशासन प्रिय थे तथा प्राकृत भाषा के लिए सदा से समर्पित रहे।विद्वानों को सम्मानित करने की परम्परा का सूत्रपात भी आपने ही किया ।आप अध्यात्म शास्त्र के मर्मज्ञ तो थे ही अन्य  विविध विषयों में भी आप पारंगत थे।आपकी लेखनी से 50 से अधिक कृतियों का प्रणयन हुआ है।गुरुवाणी तथा स्वानंद विद्यामृत के 5-5 भाग व निर्ग्रंथ प्रवचन,मंगल प्रवचन तथा अमृत वाणी जैसे लोकप्रिय प्रवचन संग्रह प्रकाशित हुए हैं जो आपकी वाणी को जन-जन तक पहुंचाने में निमित्त हैं।आपके जीवन को रेखांकित करने वाली भी अनेक कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं।मत ठुकराओ,गले लगाओ,धर्म सिखाओ जैसा अद्भुत शंखनाद कर आपने सम्पूर्ण जैन समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने का मूलमंत्र दिया ।जैन समाज के उत्थान हेतु आपके द्वारा ऐसे -ऐसे कार्य हुए हैं जिनकी मिशाल दुर्लभ है।इस महान संत के चरणों में बारम्बार नमन।